सांगला आज के समय मैं एक प्रख्यात पर्यटक स्थल है।प्रति वर्ष हजारों की तादात में पर्यटक इस घाटी का रुख करते है और नैसर्गिक सुंदरता का आनंद उठाते है। सांगला की होली तो विश्व प्रसिद्ध हो चुकी है।
२०१८ से मेरी हिमालय यात्राओं का प्रारंभ हुआ। आज भी याद जब पहली बार कन्नौरिंग – पीती की सैर पर निकला था, तब सांगला, मोने, छितकुल का भ्रमण किया था। उन दिनों मुझे पश्चिमी हिमालयी संस्कृति में बिलकुल दिलचस्पी नहीं थी ना कोई परिचय था।
पर प्रागैतिहासिक समय में स्थिती कुछ और ही थी। सांगला का संपूर्ण इलाका एक लहलहाता सरोवर हुआ करता था। माना जाता ही की उस सरोवर का पानी मोने देशांग के किले तक पहुंच जाता था। अब उन दिनों में तो मोने किला भी नहीं ही रहा होगा।
जब में दूसरी बारी २०२३ में बसपा घाटी के सांगला देशांग में कुछ दिन बिताए तो मेरा परिचय इस लोक साहित्य से हुआ। आकाश भाई के होमस्टे में ठहराव था, जहां पर उनके पिताजी मुझे यह कहानी सुनाई।
लोकगाथा के अनुसार, इस लहलहाते सरोवर को बेयरिंग नागस जी, जो सांगला देशांग का अधिष्ठायक देवता है। उन्होंने चूहे का रूप धारण कर उस सरोवर के अंदर सुरंग बनाई और सरोवर के अवरुद्ध पानी को बाहर निकालने का रस्ता मिल गया।
जैसा हर लोकगाथा को बढ़ा चढ़ा कर बताया जाते है, इस लोकगाथा को लेकर भी यही प्रतीत होता है। हाल ही में गोलदर जी “नृतात्विक दर्पण में किन्नर जनजाति की प्राचीन संस्कृति का प्रतिबिंब” किताब में इस लोकगाथा का सरल भौगोलिक विवरण दिया है।
भौगोलिक और वैज्ञानिकों को मिलें तथ्यों के अनुसार, सुदूर पूर्व में हिमालयी क्षेत्र एक लहलहाता सागर हुआ करता था। आज भी पीती में मीन के जीवाश्म मिलते है।
फिर धीरे धीरे पहाड़ उठने से झीलों का निर्माण हुआ। और लगातार भूकंप आने से झीलें फटती रही और नदी–घाटियां गहरी होती चली गई।
कुछ इस ही प्रकार सांगला, रक्षम वाले इलाके में भी यही हुआ होगा। सांगला इलाके में जो सरोवर स्थित था उस जल को बह जाने से जो पहाड़ी अवरुद्ध करती थी उसे ऋतु रांग कहा जाता है। कालांतर में पहाड़ी धीरे धीरे टूटती रही और इसे बसपा नदी की उत्पत्ति हुई।
सांगला शब्द का मतलब ही यही होती। इससे एक बात तो साफ है बसपा नदी एक समय में बड़ी सी झील हुआ करती थी जो ऋतु रांग पहाड़ी के टूटने पर उत्पन्न हुई है।